एक औरत जो सनातन है, रोज गुज़र रही है कार्बन डेटिंग से, वह औरत ख्याल नहीं सोचती बस बातें करती है चीकट दीवारों से बेबस झड़ती पपड़ियों के बीच लटके बरसों पुराने कैलेंडर में अंतहीन उड़ान भरते पक्षियों से! और हाँ, बेमकसद बने मकड़ियों के जालों से भी। उसी औरत की डायरी के पन्ने खंगाल के लाइ है मेरी कलम जो आप सबको नजर है।
बचपन -होता -,तो-स्कूल-के-बस्ते-मे-छिपा-देती-मजबूरी-को,
ReplyDeleteक्या-करूँ-मेरे-बचपन-को-वक़्त-का-चांटा-पड़-गया....
वाह क्या बात है, सुन्दर पंक्तियाँ
abhaar arun jee
Deleteबचपन होता तो छुपा देई बक्से में मजबूरियों को,टिफिन बॉक्स से निकालती अन्नपूर्णा ...माँ, ऐसा जादू क्यूँ नहीं होता
ReplyDeleteसच्चाई को बड़ी सहजता से कह डाला......
ReplyDeleteसुन्दर भाव...
अनु
बढ़िया प्रस्तुति बहुत बधाई
ReplyDeleteबडी़ ही सरलता और सहजता से मन के भाव कह दिया...
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