माँ-तूने-कहा-,गाँव-मे -सूखा -पड़- गया,
फिर-कैसे-तेरे-आंखो-में सावन-का-असर-पड़-गया।
शहर-की-आबो-हवा -मुझको-भी कहाँ-भाती-है।
क्या-करूँ-मजबूरीयों-से मेरा-वास्ता-पड़-गया।
बचपन -होता -,तो-स्कूल-के-बस्ते-मे-छिपा-देती-मजबूरी-को,
क्या-करूँ-मेरे-बचपन-को-वक़्त-का-चांटा-पड़-गया....
सोनिया प्रदीप
बचपन -होता -,तो-स्कूल-के-बस्ते-मे-छिपा-देती-मजबूरी-को,
ReplyDeleteक्या-करूँ-मेरे-बचपन-को-वक़्त-का-चांटा-पड़-गया....
वाह क्या बात है, सुन्दर पंक्तियाँ
abhaar arun jee
Deleteबचपन होता तो छुपा देई बक्से में मजबूरियों को,टिफिन बॉक्स से निकालती अन्नपूर्णा ...माँ, ऐसा जादू क्यूँ नहीं होता
ReplyDeleteसच्चाई को बड़ी सहजता से कह डाला......
ReplyDeleteसुन्दर भाव...
अनु
बढ़िया प्रस्तुति बहुत बधाई
ReplyDeleteबडी़ ही सरलता और सहजता से मन के भाव कह दिया...
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