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Saturday, 25 June 2016

चमड़े की खाल से सिली गई हूँ मैं

चमड़े की खाल से सिली गई हूँ मैं,

इसमें कुछ शारीरिक मुलाकातों को भी सिल देती हूँ।

सोचना चाहती हूँ तुमको, तुम्हारी आँखों को

पर सोच नहीं पाती,

तुम्हारे और मेरे प्रेम के बीच ख्यालों का तेज बुखार चढ़ जाता है,

मैं सिगरेट जैसी पतली उँगलियों को चिटकाती हूँ।

सोचने लगती हूँ नीच गरीबी को, जहाँ एक अधनंगी औरत,

अपनी छातियों को छिपाते हुए पिलाती है दूध नवजात को।

कुछ खौफ़नाक गिद्ध उधेड़ रहे है, ग़ुलाब की नन्ही नन्ही कलियों को।

गरीबी हासिये में, औरत या फिर गिद्ध......?

इससे आगे सोच ही नहीं पाती,

क्योंकि चमड़े की खाल से सिली गई हूँ मैं!


मैं सौंप देना चाहती हूँ तुमको चमड़े की खाल वाली देह,

जिसमें सिली हैं मैंने कुछ शारीरिक मुलाकातें

लेकिन उग्रवाद नशे की तरह फ़ैल रहा है.... सीमाओं पर!

मंदिरों की घंटियों को सुन्न कर दिया गया है, विरोध का रंग और हरा होता जा रहा है......

नन्हे बच्चे पढ़ने से पहले फेल हो रहे हैं ज़िन्दगी में.....

तुम कानों में जान बुदबुदाते हो, मैं सुनहरी मछली बन जाती हूँ,

तैरने लगती हूँ..... तुम्हारे भीतर,।

अचानक एक सुनहरे रंग वाली औरत,

खोपड़ीनुमा तट के बीचों बीच अधमरी फेंक दी जाती है!

मैं उसकी आने वाली भयानक मौत नहीं लिख पाती

क्योंकि चमड़े की खाल से सिली गई हूँ मैं!


अब मैंने इन तमाम तकलीफों को, तेज ख्यालों के बुखार में,

सिल लिया है अपनी खाल में।

अब मैं तुमको सोचना चाहती हूँ, लेकिन अब तुम मेरी खाल की सीमाओं में नहीं धंस पाते......सोच तुमपर हावी हो जाती है।

सोनिया 

4 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " खालूबार के परमवीर को समर्पित ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "भूली-बिसरी सी गलियाँ - 9 “ , मे आप के ब्लॉग को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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