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Sunday, 25 December 2016

देह जो नदी बन चुकी.....


देह जो नदी बन चुकी.....
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             (1)
भूख से बेदम.... किसी सड़क ने
पिघलते सूरज की आड़ में,
घसीट के फेंका....
एक ऐसी राह में जो दिन में झिझक से
सिकुड़ जाती है
और रातों में बेशर्मी से चौड़ी हो जाती है।

                (2)
वह औरत ख्याल नहीं सोचती
बस बातें करती है.... चीकट दीवारों से
बेबस झड़ती पपड़ियों के बीच लटके बरसों पुराने कैलेंडर में अंतहीन उड़ान भरते पक्षियों से!
और हाँ बेमकसद बने मकड़ियों के जालों से भी।

                  (3)
तेज धार वाली दोपहर जब, जीवन की सांझ को काटती है
वह घूरने लग जाती है रातों में  ईश्वर को, ठन्डे पक्षी के शव जैसे पड़ जाती है,
जब उछलती है उस पर किसी की देह,
वह अक्सर चूल्हे की आग से परे किसी के बदन की
भूख मिटाती है।
मृत्यु का काला रंग आर्तनाद करता है, फिर कुछ क्षणों बाद सब कुछ लाल लाल!

             (4)
रात का जहाज टूटता है, देह की नदी से टकराकर
क्षितिज गलने लगते हैं,
रंगबिरंगी रौशनी  के बीच अचानक आनंदित होकर ईश्वर आँखें मूँद लेते हैं,
वह मुस्कराती है, और हाथ बाँध के दार्शनिकता के नारंगी रंग में पुत जाती है।

                            (5)
ख्यालों , बातों  और भूख में से वह अपने लिए भूख चुनती है,
वही भूख जो उसके पेट में नारों की तरह चीखती है।

एक पुरुष जो बेहद गोपनीय है सबके लिए रातों में
पश्चिम से आता है,
औरत उसके लिए वह ख्याल, बातें और भूख तीनो छोड़ देती है,
ख्याल..... जो क्षणिक है
बातें जो बेहद उबाऊ
भूख...... किसी रिश्ते को स्खलित करने के लिए काफी है।

पुरुष भी भूख चुनता है, जो देह बन चुकी नदी में तैरना चाहती है।

4 comments:

  1. ओह ! अत्यंत मर्मस्पर्शी ! सार्थक सृजन के लिए बधाई आपको !

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  2. आभार साधना वैद जी

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  3. आभार साधना वैद जी

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  4. अत्यंत मर्मस्पर्शी रचना...
    वाह!!!

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