एक जननी भूख से,
पीड़ित तनय को...
बरगलाने के लिए,
कल्पना से जड़ी एक
कथा है सुनाती...
... पुत्र मेरे क्षुब्ध मत हो,
आयेंगे जब जनक तेरे,
फिर मंगऊंगी मैं आटा...
पात्र में सानुंगी उसको,
और चूल्हे को जलाकर
तवा उसमे चढ़ाऊँगी
गुंथे आटे की,.... लोई बनाकर
चाँद जैसी गोल रोटी बनाऊँगी...
ऊंघते---ऊंघते....
माँ की झूठी कथा सुनकर
सो गया बालक जमी पर
तभी आये तात उसके
घर के भीतर,
सुन रहे थे जो,
भूख की पीड़ित कहानी
बाहर खड़े हो!!
कैसे बताएँगे, संगिनी को
आज भी वृत्ति नहीं उसको मिली कुछ
अश्रु से भीगे नयन से
पुत्र को अपने निहारे
और मन ही मन में
अपनी गरीबी को
है दुत्कारे!!!
तभी बालक नींद में, बडबडा के बोला
माँ मेरी रोटी बनाना चाँद जैसी
गोल-मटोल,
उदर की ज्वाला मेरी
अब जल से भी बुझती नहीं..
कहकर इतना...फिर से बालक सो गया
देख भू में--द्रश्य ऐसा
गगन का शशि भी रो पड़ा
और बोला-
हे प्रभु!! तुमने बनाया
गोल रोटी सा मुझे क्यों ?
जब उदर की अग्नि को
मैं शांत कर सकता नहीं
भूख से पीड़ित कुटुंब की
पीर मैं हर सकता नहीं
हे प्रभु!! तुमने बनाया
गोल रोटी सा मुझे क्यों?
पीड़ित तनय को...
बरगलाने के लिए,
कल्पना से जड़ी एक
कथा है सुनाती...
... पुत्र मेरे क्षुब्ध मत हो,
आयेंगे जब जनक तेरे,
फिर मंगऊंगी मैं आटा...
पात्र में सानुंगी उसको,
और चूल्हे को जलाकर
तवा उसमे चढ़ाऊँगी
गुंथे आटे की,.... लोई बनाकर
चाँद जैसी गोल रोटी बनाऊँगी...
ऊंघते---ऊंघते....
माँ की झूठी कथा सुनकर
सो गया बालक जमी पर
तभी आये तात उसके
घर के भीतर,
सुन रहे थे जो,
भूख की पीड़ित कहानी
बाहर खड़े हो!!
कैसे बताएँगे, संगिनी को
आज भी वृत्ति नहीं उसको मिली कुछ
अश्रु से भीगे नयन से
पुत्र को अपने निहारे
और मन ही मन में
अपनी गरीबी को
है दुत्कारे!!!
तभी बालक नींद में, बडबडा के बोला
माँ मेरी रोटी बनाना चाँद जैसी
गोल-मटोल,
उदर की ज्वाला मेरी
अब जल से भी बुझती नहीं..
कहकर इतना...फिर से बालक सो गया
देख भू में--द्रश्य ऐसा
गगन का शशि भी रो पड़ा
और बोला-
हे प्रभु!! तुमने बनाया
गोल रोटी सा मुझे क्यों ?
जब उदर की अग्नि को
मैं शांत कर सकता नहीं
भूख से पीड़ित कुटुंब की
पीर मैं हर सकता नहीं
हे प्रभु!! तुमने बनाया
गोल रोटी सा मुझे क्यों?
आखिरी की पंक्तियाँ बहुत ही प्रभावशाली हैं।
ReplyDeleteसादर
बहुत ही भावपूर्ण रचना है ....सोनिया..बहुत सुन्दर..
ReplyDeletebahut bahut abhaar maheshwari kaneri jee
Deletebahut badiya kathyatmak shaili mein rachit samvedansheel prabhavpurn rachna...
ReplyDeleteabhaar kavita jee, pahadon ki yaad sach me bahut aati h tahbi maine apne blog ka naam burans k naam par rakha
DeleteBuransh ke phool dekhkar gaon ke jangle yaad aane lage...
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर एवं भावपूर्ण अभिव्यक्ति......
ReplyDeleteबहुत बधाई....
अनु
बेहद उम्दा और मार्मिक रचना !
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - किसी अपने के कंधे से कम नहीं कागज का साथ - ब्लॉग बुलेटिन
dhnayawad shivam jee
Deleteपूरे दिल दिमाग को झकझोरती रचना
ReplyDeletedhnayawad rashmi jee
Delete्झकझोर देने वाली सशक्त अभिव्यक्ति।
ReplyDeletedhnayawad vandana jee
DeleteHindi Blog Jagat mein aapka swagat hai. Is kavita par apni baat FB par pehle hi de chuka hoon.
ReplyDeletethanks manish bhaiya...
Deleteबहुत सुन्दर सशक्त रचना !
ReplyDeletethanks trupti jee
Deleteगगन का शशि भी रो पड़ा
ReplyDeleteऔर बोला-
हे प्रभु!! तुमने बनाया
गोल रोटी सा मुझे क्यों ?
आह ! चांद हमसे ज्यादा मानवीय है ।
सशक्त अभिव्यक्ति...सुंदर चित्रण।
ReplyDeleteसबसे खास बात , जैसे जैसे मैं आगे बढ़ता जा रहा हूँ , कविता का स्तर बढ़ता जा रहा है |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना | बच्चे का नींद से उठकर बोलने वाला भाग तो बहुत ही सुन्दर हो गया है |
मुझे अपनी दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं-
'आज फिर जब एक रोटी , पूरे घर में बंट गयी ,
चाँद की सुनकर कहानी , रात अपनी कट गयी |'
सादर