स्वांत सुखाए हेतु
ईश को मैंने त्याग दिया था
या फिर ऐसा बोलूं
... प्रतिमायों को कफ़न से
ढांप दिया था।
तम के प्रति जागरूक होकर
सूरज को था ठुकराया मैंने,
कुछ दिन तक पहले
प्रेम किसी का न पाया मैंने
किन्तु इन दिनों
एक अपरिचित
प्रेम का दीप,
लिए खड़ा है,जिससे
अंधियारा मन मेरा
दीप्त हुआ है
श्वेत रंग भी हुआ गुलाबी
सुख के सदन में
ईश्वर आज खड़ा है,
जब से तुमको पाया प्रियतम
मेरी दृष्टि में
कफ़न में लिपटा ईश्वर
आज फिर से जी उठा है.
(सोनिया बहुखंडी गौर )
ईश को मैंने त्याग दिया था
या फिर ऐसा बोलूं
... प्रतिमायों को कफ़न से
ढांप दिया था।
तम के प्रति जागरूक होकर
सूरज को था ठुकराया मैंने,
कुछ दिन तक पहले
प्रेम किसी का न पाया मैंने
किन्तु इन दिनों
एक अपरिचित
प्रेम का दीप,
लिए खड़ा है,जिससे
अंधियारा मन मेरा
दीप्त हुआ है
श्वेत रंग भी हुआ गुलाबी
सुख के सदन में
ईश्वर आज खड़ा है,
जब से तुमको पाया प्रियतम
मेरी दृष्टि में
कफ़न में लिपटा ईश्वर
आज फिर से जी उठा है.
(सोनिया बहुखंडी गौर )
अति सुन्दर रचना..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी कविता है।
ReplyDeleteआध्यात्मिक रचना.....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteसुंदर.
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - सेहत के दुश्मन चिकनाईयुक्त खाद्य पदार्थ - ब्लॉग बुलेटिन
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव
ReplyDeleteबहुत सुंदर आध्यात्मिक कविता.
ReplyDeleteबधाई इस सुंदर प्रस्तुति के लिये.
बहुत ही बढ़िया।
ReplyDeleteसादर
कफ़न में लिपटा ईश्वर , बहुत अच्छी लगी सोच |
ReplyDeleteसादर