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Wednesday, 30 May 2012

वो! आबरू को लूट मेरी,आज धनी बन गए

सोचते हैं वो!
आबरू को लूट मेरी
आज धनी बन गए
और मुझको इस
धरा मे कवचहीन
कर गए---
... आज जब घर जाएंगे
दर्पण भी लज्जित हो जाएगा
लाख ढँप लें तन को अपने
धिक्कार से भर जाएगा
आज मेरे नैन जो,
अश्रुयों से भर गए,
घर मे खड़ी माँ-बहन से
ना नैन मिला पाएगा
जो प्रीत उस पापी ने
मेरी नश्वर देह
से लगाई थी
धिक ऐसी प्रीत को
जिसने एक अबला की लाज
भरे जग लुटाई थी
हस ले पुरुष तू आज जितना
पुरुषत्व के इस् दर्प पर
अपनी नजर मे जब
तू गिरेगा-
पुरुषत्व का
ये दर्प, काँच सा चूर-चूर
हो जाएगा,
सोनिया बहुखंडी गौड़

12 comments:

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  2. बहुत मर्मस्पर्शी सशक्त अभिव्यक्ति....

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  3. बहुत मार्मिक और संवेदन शील लिखा है जिनको शर्म या आत्मग्लानि हो वो ऐसा काम करते ही नहीं हैं भगवाव को क्या मुह दिखायेंगे ये भी नहीं सोचते

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  4. atyant maarmik...ant me apne naam ki vartani sahi kar de,,,

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  5. अत्यंत मार्मिक प्रस्तुति....

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  6. बेहद संवेदनशील और मार्मिक

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  7. bahut umda rachna..........

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  8. सशक्त और सार्थक

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  9. सोनिया बहुत ही सार्थक सशक्त और मार्मिक अभिव्यक्ति....सस्नेह..

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  10. तू न फलेगा कभी
    तू न हंसेगा कभी
    अपने इस कृत्य से भाग मत भाग मत

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  11. बहुत सशक्त रचना , मुझे आज तक समझ नहीं आया कि इस पुरुषत्व का क्या मतलब होता है , सिर्फ नारी को पीटना या अन्य तरीकों से प्रताड़ित करना ही पुरुषत्व की परिभाषा रह जाती है क्या ?
    हरगिज नहीं , लेकिन सच्चाई यही है |

    सादर

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