एकांत में संवाद
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उदास काले फूलों वाली रात
उतरी पहाड़ो की देह पर
जैसी सरकती हैं जमी पर असंख्य लाल चीटियां
झूठी हँसी लिए स्नोड्राप बह रहे हैं
एक बेफिक्र नदी में!
तुमने कहा-
मेरा इंतज़ार कब तक?
बर्फ के पिघलने तक
ठंड से ठिठुरते हुए बोली मैं!
तुमने आंच बढ़ाई सूरज की
ग्लेशियर गलने लगे
तमाम पेंगविंस के पैरों में पड़ गए छाले
कुछ छाले मेरी जीभ पर भी हैं
जो बढ़ रहे हैं सूरज की आंच से...
मुझे लौटना है उदास फूलों के बीच
जहां मेरी पीठ पर रेंगती दिखेंगी लाल चीटियां
ठंडी झूठी हँसी नदी में पिघल चुकी होगी।
खौलता सूरज मेरे जीभ के छालों पर तपता मिलेगा
एक खामोशी तुम्हारी नसों में बहेगी
इंतज़ार कभी न खत्म होने वाला एकल विलाप है
#soniya
सुन्दर लेखन
ReplyDeleteबेहद सुंदर बिंबों से सजी प्रभावशाली अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १३ सितम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
मार्मिक रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन।
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