Thursday 28 February 2013

शहरीकरण का जादू


सन्नाटों ने शोर यूं ही न मचाया होगा
स्वर्ग से उत्तराखंड मे,
शहरीकरण ने जादू चलाया होगा

जल-पूर्ति के लिए मीलो का सफर तय करती,

ग्राम्या की कमर ने भी बल खाया होगा॰

ज़िंदगी दवा की फरमाइश कैसे करती,

डाक्टर भी आने से कतराया होगा।

पहाड़ों मे बसे गाँव उजड़ रहे,शिलाओं ने भी अश्रु बहाया होगा।

यूं ही ना पलायित हुए होंगे नौजवान साथी

कुछ मजबूरी ने तो कुछ भूख ने कहर बरपाया होगा

आज जिधर देखो, उधर मरघट सी शांति फैली

शहर के चक्रव्यूह से भला कौन बच पाया होगा

बना बैठे अपना घरौंदा कंक्रीट के जंगल मे,

हरा-भरा पहाड़ जैसे इनके लिए पराया होगा।

 

Sunday 17 February 2013

ख़्याल मफ़लूज हुए होंगे!

हर बरस की तरह,
इस बरस भी.....
उस आतुर, व्याकुल पथ के मोड पर
मेरी राह निहारते रह गए होगे होगे तुम!
और मैं आ पाई,
न सुन पाई तुम्हारी श्वासों का मध्यम स्वर 
ख़्याल मफ़लूज हुए होंगे!
न जाने क्या-क्या सोचकर।
वो सदाबहार सेमल भी ठिठका होगा!
जब तुम्हारी इन दो बोलती आँखों से,
इंतज़ार का खौलता अश्रु टपका होगा।
यकीनन कागज़ी बौगैनविलिया
भी पीर मे डूबे होंगे।
तो ख़मोश दोपहर
भी कुछ चिंतित हुई होगी
जो तुमने परवाह करते हुए,
मेरे इंतज़ार मे गुजरी होगी।
संभवतः एक अकेली ‘बबलर’ के गीत से,
तुम्हारी वियोग से भरी…..
रीती ज़िंदगी और भारी हुई होगी।
गौधूलि तक भी ना मैं आ पाई।





मेरी मजबूरीयों ने तोड़े होंगे,
सतरंगी स्वप्न तुम्हारे।
निशा के आने तक भी ना
लाँघ पाई मैं लक्ष्मण रेखा!
पथराए नैनो मे,
सावन की बूंदे लिए लौट रहे होगे।
उस ‘वरदान रूपी’ चौराहे से....
जिस ओर मिले थे कभी हम।
आज भले मिल ना पाये हों हम।
किन्तु अगले बरस, इसी दिन
मैं तुमसे जरूर मिलने आऊँगी....
यकीनन तुम दशरथ समान
अपने मिलने का वचन निभाओगे,
और समय के बिछौने मे जो कांटे पड़े हैं,
उनको पराग मे बदल जाओगे।