Wednesday 9 October 2013

श्यामली के अप्रेषित पत्र -1

अप्रेषित पत्र ( शर्मीली फिज़ाओं के दिन  )..........

तुमको याद करना अब मेरी भी आदत हो गई है, अक्सर नींद टूट जाती है रातों को। पता चल जाता है की तुम भी जाग गए हो.... यही तो है असल में दिल का रिश्ता। तुमको मेरे से बात करना बहुत पसंद है ना... फोन पर तो पूरी बात भी नहीं कर पाते... और क्या ? और क्या ? पूछते रह जाते हो। पर श्यामली को सब समझ में आता है, गौरांग। पता है तुम जिस मोड में मिले थे वो मोड अक्सर मिलता है मुझको, और पूछता है किधर है तुम्हारा हमसफर, खामोशी से उसकी बात सुनकर आगे बढ़ जाती हूँ, मेरे पास कोई जवाब नहीं....


अक्सर सोचती हूँ के चाँदनी रात हो और लगे कई मौसमों का मेला है जहां ,मैं और तुम हो....... कभी बारिश में भीगे, और कभी रात में बहने वाली वासंती बयार में सरोबार हो जाएँ...... तो कभी सर्दी की सर्द साँसों को महसूस करें... पर तुम तो कुछ और ही सोचते हो, मुझे बड़ा ही कष्ट होता है। तुम्हारी सोच पर। 


कल तुम बिना बताए चले गए, सोचा के तुम्हारी यादों के सूखे फूलों को चूर-चूर कर दूँ पर नहीं कर पाई अगर कर भी देती तो मेरे ही आस-पास आकर फैल जाते। तुम्हारे साथ भी जीवन दूभर है और तुम्हारे बिना भी। तुमको पता है की बड़ा मन है तुम्हारे साथ बनारस के घाटों में घंटों वक़्त बिताने का, चलो ना कभी चलते हैं मणिकर्णिका जहां एक ओर मंदिर के घंटों का नाद हो और हों पवित्र वातावरन में हमारे कुछ शांति भरे पल जहां हम भूल सकें सारी दुनियादारी, पर ऐसा संभव कहाँ… हम दोनों बंध चुके हैं दुनियादारी से... बड़ा मुश्किल है अब वापस शर्मीली फिज़ाओं का दुनिया का में लौट आना। पर सुनो, मेरी आखिर इच्छा सुनो.... मेरे अंतिम क्षण में मैं चाहती हूँ के तुम ले चलना मुझे मणिकर्णिका शायद महसूस कर पाऊँ धुए की रौ में मैं शर्मीली फिज़ाओं का आखिरी स्पर्श। और तुम्हारा आखिरी साथ और यादों से मुक्ति
 

तुम्हारी सिर्फ तुम्हारी
    श्यामली





Friday 27 September 2013

खामोश आँखों की बातें।

नहीं रहते पहले जैसे ख़्वाब
मुरझा जाते हैं प्रेम पुहुप
किसी साँवली सी शाम को
प्यासी निशा में गुम हो
जाती हैं, वो खामोश आँखों की बातें।
अलगाव के सहमे से स्पर्श।

अब नहीं निकलते अधरों से
थरथराते प्रेम के शब्द
बस उतेजना कागज के
पुर्जों में थरथराती है.....
कहाँ नजर आती है
देह को रोमांचित करने वाली समीर,
बस वियोग की उमस में
लथपथ रहती हूँ।

चाँदनी दिखती जरूर है,
पर सुखांत की बेवा नजर आती है।
सहसा तुमको याद करना,
अभिशाप हो जाता है.....
स्वप्न कायर की भांति
भागते नजर आते हैं.....
और मैं जलने लगती हूँ
शब्दों की मशाल से ......

क्यूँ कब और कैसे हुआ
अलगाव हमारा?
आज भी प्रश्न की खोज में हूँ,
और समय निरुत्तर खड़ा है,
मेरे समक्ष................
सुनो आ जाना उसी मोड पर
जहां एक मुलाक़ात अधूरी पड़ी है।
और हो सके तो समय के रिक्त स्थानो
को भी भर देना.........
सोनिया

Tuesday 24 September 2013

तुमको याद रखने का दुःख



एक दर्द है,जो सहमा और सिमटा है
कलेजे के भीतर
कभी घुटता रहता है
कभी हांफने लगता है
कभी भीतर ही भीतर
विरोध के गहरे हरे रंग में पुत जाता है।
जानते हो क्यों,
सहमा रहता ये दर्द है ?
तुम्हे याद रखने के दुःख से!!!!!
एक मौत के जैसा दुख है
इस जन्म में।
हमारी अधूरी चाहत।
तुमसे न मिल पाने की
गूंगी-बहरी टीस
जो बरबस सालती रहती है।
अब ये दर्द कभी गुलाबी नही होगा
ये घुटता रहेगा कलेजे में
और विरोध के हरेपन में बेसुध हो जायेगा।
और ज़िंदगी छटपटाती रहेगी
बेबसी की दरारों के बीच।
सोनिया गौड़

Tuesday 25 June 2013

हाँ गौरांग आज भी यादें, बेबसी की चादर ओढ़े, मेरे पास दुबकी बैठी है ....

हाँ गौरांग आज भी यादें,
बेबसी की चादर ओढ़े,
मेरे पास दुबकी बैठी है
कैसे इजाज़त दे दूँ उसे,
मेरे पास से दूर जाने की
एक यादों का ताना-बाना ही तो मुझे
आज भी तुमसे जोड़े रखता है।

अपनी-अपनी परछाइयाँ हमने,
एक दूसरे के घरों में विस्थापित कर दी हैं
और उन्हे शामिल कर लिया है अपने जीवन में
एक दूसरे के ना हो सके तो क्या हुआ,
एक-दूसरे की परछाइयों को
बाहों में भरकर काम चला रहे हैं।

हाँ गौरांग श्यामली इन दिनो
डूबी हुई है प्यार के गुलाबी अहसास में,
उमसाई दोपहर के सूनेपन में,
दुखों से पगलाई, सरसराती हवाओं में,
और एक उम्मीद में!
के तुम मना लोगे मुझे
पर तुम्हारी ना- मनाने की आदत
याद आते ही बेचैन हो जाती हूँ।
हाँ गौरांग यादें देश-परदेश
जात-कुजात नहीं देखती,
वो वक़्त को मात देकर आ जाती हैं,
इन दिनो तुम्हारी यादें मेरे देश में आकर
मेरा कत्ल कर रही हैं,
और मेरी यादें तुम्हारे देश में तुम्हारा!

क़त्ल होने से बेहतर है गौरांग
छोड़ दो अपनी बुरी आदत और,
मना लो श्यामली को समय रहते,
वो मान जाएगी.........
क्योंकि उसकी बुरी आदतें छूट चुकी हैं।

Tuesday 4 June 2013

चाँदनी एकांत की बेवा नजर आती है.....



नहीं रहते पहले जैसे ख़्वाब
मुरझा जाते हैं प्रेम पुहुप
किसी साँवली सी शाम को
प्यासी निशा में गुम हो
जाती हैं, वो खामोश आँखों की बातें।
अलगाव के सहमे से स्पर्श।

अब नहीं निकलते अधरों से 
थरथराते प्रेम के शब्द
बस उतेजना कागज के
पुर्जों में थरथराती है.....
कहाँ नजर आती है
देह को रोमांचित करने वाली समीर,
बस वियोग की उमस में
लथपथ रहती हूँ।

चाँदनी दिखती जरूर है,
पर एकान्त की बेवा नजर आती है।
सहसा तुमको याद करना,
अभिशाप हो जाता है.....
स्वप्न कायर की भांति
भागते नजर आते हैं.....
और मैं जलने लगती हूँ
शब्दों की मशाल से ......

क्यूँ कब और कैसे हुआ
अलगाव हमारा?
आज भी प्रश्न की खोज में हूँ,
और समय निरुत्तर खड़ा है,
मेरे समक्ष................
सुनो आ जाना उसी मोड पर
जहां एक मुलाक़ात अधूरी पड़ी है।
और हो सके तो समय के रिक्त स्थानो
को भी भर देना.........
सोनिया

Wednesday 29 May 2013

आसमान चिट्का-चिट्का नजर आता है









Photo: तुम्हारे  जाने के बाद 
नींद किसे आती है,
स्वप्नों की साजिशें-
यादों की दुरभिसंधि ,
वियोग संग!.......
लगातार आँखें बंद कर
सोने का अभिनय
और स्वयं से परास्त हो जाना 
इन दिनों यही है जीवन 
तुम्हारे जाने के बाद।

मेरे छन्द उजाले से दूर !
कवितायें अंधेरे में रच रही हूँ,
स्मृतियों के जुलूस से,
तड़ित झंझावत सी भिड़ रही हूँ। 
महसूस करती हूँ,
तुम्हारी और मेरी उत्तेजित साँसे
निःस्तब्ध अंधकार में,
मानो थामे हो तुम मेरा हाथ,
अपने हाथ में............पर वो तुम नहीं 
मेरा एकाकी स्वांग रच रहा है 
इन दिनों यही है जीवन 
तुम्हारे जाने के बाद।

ना जाने क्यूँ
आसमान चिट्का-चिट्का नजर आता है
विरह का रंग सांवला है,
बस यही समझ आता है---
इसी सांवलेपन में ‘तुम’
झूठे पुष्प की तरह लगते हो
देवता पर चढ़ाये पुष्प की भांति
नियति देखो हम दोनों ‘झूठे फूल’ हैं 
फिर भी एक-दूसरे पर हैं समर्पित।
कैसी-कैसी सोच में जी रही हूँ,
इन दिनों यही है जीवन 
तुम्हारे जाने के बाद।

मृत्यु के जितने हैं पर्याय 
और जीवन के हैं जितने विलोम
उनको जी रही हूँ।
वियोग रेगिस्तान की जलन बन गया है,
स्वयं की ‘गुमशुदगी’ का विज्ञापन
पत्र-पत्रिका में दे रही हूँ।
क्या मालूम तुम ‘सुमेरु’ बन
मुझ ‘विदग्धा’ को ठंडक दो 
और बन जाओ मेरे लिए जीवन का पर्याय
इन दिनों यही है जीवन 
तुम्हारे जाने के बाद।
सोनिया गौड़

तुम्हारे जाने के बाद
नींद किसे आती है,
स्वप्नों की साजिशें-
यादों की दुरभिसंधि ,
वियोग संग!.......
लगातार आँखें बंद कर
सोने का अभिनय
और स्वयं से परास्त हो जाना
इन दिनों यही है जीवन
तुम्हारे जाने के बाद।

मेरे छन्द उजाले से दूर !
कवितायें अंधेरे में रच रही हूँ,
स्मृतियों के जुलूस से,
तड़ित झंझावत सी भिड़ रही हूँ।
महसूस करती हूँ,
तुम्हारी और मेरी उत्तेजित साँसे
निःस्तब्ध अंधकार में,
मानो थामे हो तुम मेरा हाथ,
अपने हाथ में............पर वो तुम नहीं
मेरा एकाकी स्वांग रच रहा है
इन दिनों यही है जीवन
तुम्हारे जाने के बाद।

ना जाने क्यूँ
आसमान चिट्का-चिट्का नजर आता है
विरह का रंग सांवला है,
बस यही समझ आता है---
इसी सांवलेपन में ‘तुम’
झूठे पुष्प की तरह लगते हो
देवता पर चढ़ाये पुष्प की भांति
नियति देखो हम दोनों ‘झूठे फूल’ हैं
फिर भी एक-दूसरे पर हैं समर्पित।
कैसी-कैसी सोच में जी रही हूँ,
इन दिनों यही है जीवन
तुम्हारे जाने के बाद।

मृत्यु के जितने हैं पर्याय
और जीवन के हैं जितने विलोम
उनको जी रही हूँ।
वियोग रेगिस्तान की जलन बन गया है,
स्वयं की ‘गुमशुदगी’ का विज्ञापन
पत्र-पत्रिका में दे रही हूँ।
क्या मालूम तुम ‘सुमेरु’ बन
मुझ ‘विदग्धा’ को ठंडक दो
और बन जाओ मेरे लिए जीवन का पर्याय
इन दिनों यही है जीवन
तुम्हारे जाने के बाद।
सोनिया गौड़




















Monday 27 May 2013

चलो गौरांग चलो स्वप्न, कहीं समाप्त ना हो जाएँ

चलो गौरांग चलो
स्वप्न कहीं समाप्त ना हो जाएँ
चलो कहीं दूर चलो।
अभी ठहरें हैं अभ्र भी!
इनके उड़ने से पहले,
और मेरे दुखों के बरसने से पूर्व
चलो अपनी श्यामली का
हाथ थाम कहीं दूर चलो।

जलाती है देह को मेरी
श्मशान से आने वाली हवाएँ
क्या मालूम पुनर्जन्म में
हम मिल पाएँ या ना मिल पाएँ
स्म्रतियों के आंधियों से फसने से
बेहतर है गौरांग,
हम कहीं दूर चले।

अभी बाकी हैं यौवन की चंद सांसें
तुम्हारे और मेरे भीतर,
यौवन के गुजरने से पहले,
विषाद के स्वर गुनगुनाने से पूर्व
बेहतर है गौरांग
हम कहीं दूर चलें।

क्यूँ उलझें निशा से
बेतरतीब बिखरे ख़यालों से
या वक़्त के हवालों से
मुझे बिखरना है,
तुम्हारी आँखों में, सुलगते अधरों में
और इस देह में------
चलो गौरांग चलो
अपनी श्यामली का हाथ थाम कहीं दूर चलो
सोनिया

Thursday 23 May 2013

हांफता,काँपता दमे से पीड़ित, मेरा प्रेम हुआ मृत्यु में लीन

हांफता,काँपता दमे से पीड़ित,
मेरा प्रेम हुआ मृत्यु में लीन
खुश हूँ बहुत मैं आज,
संताप मेरा हुआ आज क्षीण.

जब जीवित था,स्वप्न बिखरे थे
सूने पथ पर मेरे.

किन्तु उस पथ पर खड़े हैं,
आज देखो! छाँव देते तरुवर हरे-हरे.

ना इस जनम,ना पुनर्जनम
तुमसे मिलने की इक्षा है मेरी
खौलते नैनो से मैंने,
विदाई की है तेरी......

Friday 17 May 2013

सब कुछ सतत होगा।



विस्मृत करूंगी पहले,
तुम्हारे साथ बिताए पलों को
आधीर रातों को,
यादों में जलते दिनों को,
अरुण के साथ स्वांग रचाती
अलस भरी भोर को,
फिर भूलूँगी तुम्हें!
सब कुछ सतत होगा।

तुम योग्य नहीं थे मेरे प्रेम के!
फिर भी तुम्हारी अयोग्यताओं को आलिंगन किया  
भुला दूँगी उन समस्त संभावनाओं को,
भावनाओं के उतेजित पलों को
उन तटस्थ पथ को,
जिनमे चले थे कभी दो जोड़ी कदम हमारे,
फिर भूलूँगी तुम्हारी अयोग्यताओं को
सब कुछ सतत होगा।

भूलना पड़ेगा मुझे
जीवित रहने की आदतों को!
उस सहमे स्पर्श को,
असपष्ट बातों को,
निषिद्ध गलियों को
जहां मिलते थे कभी बेखौफ हम!!
फिर भूलूँगी तुम्हारे जीवित प्रेम को!!
सब कुछ सतत होगा।


सीखूंगी अग्नि में जलने की तरकीबें
बादलों के लक्ष्य को भेदूंगी,
करूंगी विरह के रंगो पर शोध!
अनायास याद करूंगी तुम्हें
और मुक्त हो जाऊँगी....
मेरे जीवन के संकोच से तुम्हें भुला पाना मुश्किल है
मृत्यु की बेधड़क प्रवृति से ही भूल पाऊँगी तुमको।
अचानक भूल पाना संभव नहीं,
सब कुछ सतत होगा।
 सोनिया गौड़

Thursday 16 May 2013

ब्याज पर ज़िंदगी



ना जाने किस अज़ाब की सज़ा पा रही हूँ
के इश्क़ की हर बाजियों को हारती जा रही हूँ

तुम्हारा फ़न मेरा दिल तोड़ने से हर बार निखरा
अपनी हस्ती को तुम्हारे आगे मिटाती जा रही हूँ


ज़िंदगी कब से गिरवी पड़ी है तुम्हारे पास
अब ब्याज पर ज़िंदगी जीती जा रही हूँ

आँखों में अश्क तुम्हारे दी हुई सौगातें हैं
इन सौगातों में खुद को डुबोती जा रही हूँ

मेरे तुम्हारे बीच रिश्ता लगभग वही है
पर पहले प्यार की तड़फ खोती जा रही हूँ
सोनिया 

Monday 13 May 2013

तुम्हारी प्रेम-कहानियों के किस्से!!!!!!


रोज तो सुनती हूँ,
तुम्हारी प्रेम-कहानियों के किस्से
जो बने रहेंगे अंतिम साँसो तक मेरे हिस्से।

रोज सुनती हूँ तुम्हारे दुखों की दस्तक
जो गूँजती रहती हैं हथौड़े सी मेरे जेहन में,
जैसे पुराने-जर्जर खंडहर से,
सिसकती हो सदाएं—निः स्तब्ध रात्रि में

रोज दिखते हो कंधे में लादे
यादों को बेताल सरीखे,
जो रोज एक पुरानी कहानी दोहराती है....
और तुमको बेचैन कर, भावनाओं के तरु से लटक जाती है।

रोज बुलाते हो रत्नाकर को
जो दिल में तेज लहरों के साथ,
भावों की सुनामी लिए आता है....
जिसका असर नैनो में उतर जाता है। 


रोज जलते हो थार के साथ-साथ
और कभी हिमालय की सर्द साँसे झेलते हो,
समय जब कभी लगता है तुमको,
मेरे अहसासों की साँसो को खुद मे घोलते हो........

रोज तो सुनती हूँ,
तुम्हारी प्रेम-कहानियों के किस्से
जो बने रहेंगे अंतिम साँसो तक मेरे हिस्से।
सोनिया गौड़

Thursday 9 May 2013

तुम कांपती सर्दी हो !

तुम कांपती सर्दी हो !
और मै स्वेद से लतपथ ग्रीष्म !
कितने विचित्र मौसम है हम
एक दूसरे से....
कुछ न कुछ चाहते है
तुम्हे मुझसे प्रेम की
गर्माहट चाहिए |
ताकि तुम अपनी
ठिठुरती देह को
शांत कर सको |
मुझे तुमसे
शीतलहर की उम्मीद है
ताकि मै सुखा सकू
बेख़ौफ़ पसीने को |


Photo: तुम कांपती सर्दी हो !
और मै स्वेद से लतपथ ग्रीष्म !
कितने विचित्र मौसम है हम 
एक दूसरे से.... 
कुछ न कुछ चाहते है 
तुम्हे मुझसे प्रेम की 
गर्माहट चाहिए |
ताकि तुम अपनी 
ठिठुरती देह को 
शांत कर सको |
मुझे तुमसे 
शीतलहर की उम्मीद है 
ताकि मै सुखा सकू 
बेख़ौफ़ पसीने को |
हमारा प्रेम वसंत है 
जिसके आगमन से 
खिल उठते है बुरांस 
बौराते है आम 
और मिलती है कुसुम को सांस 
लेकिन अलगाव पतझड़ है ,
पतझड़ ने चक्रव्यूह रच
बसंत को फसा दिया है |
अद्भुद !
पतझड़ के संग बसंत भी झड़ रहा है |
बसंत को बचाना है 
तो शीत और ग्रीष्म का मिलन करना होगा 
जिसके बीच बसंत खिल उठेगा | 
 हमारा प्रेम वसंत है
जिसके आगमन से
खिल उठते है बुरांस
बौराते है आम
और मिलती है कुसुम को सांस
लेकिन अलगाव पतझड़ है ,
पतझड़ ने चक्रव्यूह रच
बसंत को फसा दिया है |
अद्भुद !
पतझड़ के संग बसंत भी झड़ रहा है |
बसंत को बचाना है
तो शीत और ग्रीष्म का मिलन करना होगा
जिसके बीच बसंत खिल उठेगा

Friday 22 March 2013

हमारे रिश्ते का “सिजेरियन” !


 वो पहाड़ी पथ आज भी,

तटस्थ होगा, जिधर-

मेरे और तुम्हारे कदम चले थे कभी।

हाँ हमारे रिश्तों की हत्या हो गई-

जैसे  भ्रूणहत्याकरते हैं लोग।

नहीं जानती थी कि, वो

पथअंतिमविदा पथहोगा।

सुनो! याद है.... ठंड से ठिठुरती मैं,

और मूक चट्टान पर चिपका पसरा पाला,

मैंने बर्फ समझा था उसे...

अंतर तो तुमने समझाया था........

पाले और बर्फ का.....

मेरे ख़ुश्क  हाथो में आते ही, ना जाने क्यूँ?

वो पाला पिघल गया,या दम तोड़ दिया उसने!

क्या मेरे हाथो से ही मिलनी थी उसे मुक्ति?

फिर तुम्हारीझिझकको

क्यूँ ना मुक्त करा पाई मैं-

और ना तुम्हारे हाथों को स्पर्श कर पाई मैं।

क्या कॉफी के प्याले का झाग था हमारा प्रेम?

जिसका प्रारब्ध बस मिट जाना था.....

तुम्हारे बगल में बैठे-बैठे बस मैं

तुम्हारी ठंडी आहें महसूस कर पाई.........

लेकिन अपनी गर्म साँसों का आलिंगन

तुम्हारी साँसो से तनिक कर पाई।

ना जाने काल का षड्यंत्र था,

या समय ने जानबूझ कर दिया

हमारे रिश्ते कासिजेरियन” !

जिसमें हमारे रिश्ते ने ही दम तोड़ा.....

हाँ- ये बात अलग है कि हमारी,

आत्माएँ आज भी भटक रही हैं!

वही तटस्थ पहाड़ी पथ पर,

जो हमारी अंतिम विदास्थली था।