तुम्हारी बाहों में सिमटे हुए गुफ्तगू करना अच्छा लगता है। सुन रहे हो ना! तुम भी बेख्याली में हम्म बोले और आँखों को बंद कर मेरे अहसास को जीने लगे।
जानते हो ? तुमने आँख खोली और देखते हुए बोले, क्या? मैंने बोला तुम सर्दी की गुनगुनी धूप हो। अपनी ठंडी देह को तुममे समेटना अच्छा लगता है। तुम सच्चाई हो और मैं एक बुराई। तुम मुझे रोज प्रकृति के नियम समझाते हो, और मैं जो एक बुराई हूँ, तुम्हारी सच्ची बातों को दरकिनार कर रही हूँ। तुम दो पल के लिए मुझे जीना चाहते हो। और रोज कहीं जाने की ख्वाहिश करते हो।
तो मान क्यों जाती, क्यों मेरी ज़ख़्मी रातों को कुरेदती रहती हो, क्यों मेरे तापमान को बढ़ा देती हो तुमने अचानक मेरी बात को बीच में काटते हुए बोला।
तो तुम राम क्यों बन जाते, जीत लो ना बुराई को सच से। मुझे मेरे दायरे से बाहर निकाल दो ना। ये मर्यादित सीमाएं मिटा दो। मैंने भी अपने दिल की बात बड़े सलीके से तुम तक पहुंचा दी। मानो मन के भीतर बुझी पड़ी राख में इच्छाओं की कुछेक चिंगारी शेष थी, जो तुम्हारे टटोलने से उभर आई।
अचानक तुमने थामा मुझे, और तेज रजनीगंधा की महक मेरे नथुनों में भर गई। तुममें समा के लगता है की तुम रजनीगंधा की डाली भी हो। तुम्हारे सौम्य हाथों पे मैं उँगलियों से खुद का नाम लिखने लगी तो एक कम्पन को महसूस किया मैंने। पता नहीं मुझमें सुकून है या तुममे, जो एक दुसरे में डूब के ही मिल पायेगा।
सुनो चलो! बनारस चलते हैं, ये जो हम दोनों के भीतर कुछ जल रहा है ना शायद सुरध्वनि के जल से कुछ शांति मिले। या चलो हिमालय की सर्द साँसों में चन्द हमारी गर्म साँसों को घोल दें।
मरुभूमि क्या तुमको पसंद नहीं अचानक एक सवाल तुमने पटका, क्योंकि काफी देर से तुम बस मुझे ही सुने जा रहे थे।
अरे पागल वो भी तो हमारी तरह जल रहा है। किसी नदी को खुद में समेट के भी जल रहा है। मैंने बोला।
मैं भी तो जल रहा हूँ, आओ नदी बन जाओ और समा जाओ मेरे भीतर। और तुम आलिंगनबद्ध कर लिया मुझको। तुम तपस्यारत हो और उस तपस्या का मैं वरदान हूँ,
तुम भोग लेना चाहते हो वरदान को। अचानक तेज शीत हवा कमरे के भीतर आती है और चली आती है रजनीगंधा की चिरपरिचित महक, उनींदी आखों से देखती हूँ बिस्तर की सिलवटें, और तुम्हारे अहसास,
जो कल के ख्वाब में आये थे। और ख्वाब अपनी जात के साथ टूट चुका था। छोड़ गया था मुझे सवालों के घेरे में और घेरे बन चुके थे अग्नि की वृत्ताकार ज्वाला। हाँ मेरे सत्य पे विजय पाने वाले राम मैं सीता बन चुकी हूँ, जो सदियों से अग्निपरीक्षा देती चली आई है। पर ये सीता अपनी बुरी इच्छाओं के साथ ही रहेगी। तुम कितने भी प्रकृति के नियम के पाठ पढ़ा लो। क्योंकि मेरे जीवन का असल राम परीक्षा लेने में माहिर है। और अगर मैं तुम्हारी प्रकृति पाठ की असल शागिर्द बनी ना तो मैं इस अग्नि परीक्षा में फेल हो जाउंगी। इस बार बुराई अपनी जीत पे मंद मंद मुस्का रही है और सच मुंह ढापे छुप गया है। जैसे छुप जाता है सूरज।
आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा 23-10-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1775 में दिया गया है
ReplyDeleteआभार ।
सुन्दर प्रस्तुति ...
ReplyDeleteदीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें!
शुक्रिया कविता जी आपको भी हार्दिक बधाई
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