माँ ने गलत सिखाया है
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अगर मेरी कविता पढ़ते वक़्त
नज़र आये मेरा दुःख
उसे बहने देना दिल में
ये दर्द मेरी जैसी असभ्य औरतों का दुःख होगा।
जो आज तक न समझ पाई पुरुष स्त्री का भेद!
तुम सिखा सकती थी इस भेद को कुछ यूँ, जैसे
फसल अपने भीतर छुपाये रहती है अनाज
अपनी देह को तपाते हुए पैदा करती है गेँहू-धान
ऐसी ही होती है औरत जो दर्द में होकर भी पैदा करती हैं पुरुष!
पर तुम बोली धीरे बोलो भइया तो लड़का है
तुम ठहरी लड़की
समाज की जुबान फुसफुसी है लेकिन कान तेज हैं
शांत रहो
पहली दफ़ा जब पेट दर्द और शरीर में महसूस किया था चट्टानों के भार को
तुम मुझे समझा सकती थी की औरत भी ब्रह्मा है पर
तुम मुझे अचार में फैली फफूँद और पूजाघर की सरहदों के बारें में समझाती रही।
और समाज फुसफुसाता रहा
एक और अछूत के बढ़ जाने पर
मुझे तुम रात और दिन का भेद समझा सकती थी
जब उम्र मुझमें घोड़े की तरह सवार थी
तुमने लगा दीं मेरे खेलने पर पाबंदी
मुझे मुझसे लड़ने के लिए छोड़ दिया अकेला
मैं देखती रही बिखरते हुए कई लड़कियों को सड़कों पर रात में
जो मासूम सुबह तक बेशर्म अख़बार की सुर्खियां बन गई
माँ तुम्हारा समाज चोर है जो फुसफुसा के भाग जाता है
मैं सिपाही की तरह उसे खोज रही हूँ
और तुम आज तक उसकी भयानक तस्वीर दिखा के
मुझे डरा रही हो।
मैं महसूस कर रही हूँ तुममें दर्द नही पैदा हुआ
मुझ जैसी असभ्य औरत को समझने का
Soniya Bahukhandi
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