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Saturday, 22 December 2012

ज़िंदगी जीती रहूँ मैं उधार की

ज़िंदगी जीती रहूँ मैं उधार की
जब तक मिले साँसे तुम्हारे प्यार की,

 हांथों की इन लकीर मे तेरा, ही नाम है
उस नाम संग जीना मेरा बस काम है

 आशाओं मे जीती हूँ के मिल जाओ तुम
आलिंगन मे आके ना कहीं फिर जाओ तुम

... तुम भूख हो तुम प्यास् हो 
 टूटी हुई इच्छाओं की अरदास हो

कस्तूरी की भांति छुपे हो भीतर कहीं
मैं बांवली से ढूंदती क्यूँ फिर रही ?
सोनिया बहुखंडी गौड़

4 comments:

  1. मन के भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....

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  2. बहुत ही सुन्दर रचना...

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  3. अंतिम पंक्तियाँ असल जान हैं - 'कस्तूरी की भांति छिपे हो भीतर कहीं',

    सादर

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