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Tuesday, 4 June 2013

चाँदनी एकांत की बेवा नजर आती है.....



नहीं रहते पहले जैसे ख़्वाब
मुरझा जाते हैं प्रेम पुहुप
किसी साँवली सी शाम को
प्यासी निशा में गुम हो
जाती हैं, वो खामोश आँखों की बातें।
अलगाव के सहमे से स्पर्श।

अब नहीं निकलते अधरों से 
थरथराते प्रेम के शब्द
बस उतेजना कागज के
पुर्जों में थरथराती है.....
कहाँ नजर आती है
देह को रोमांचित करने वाली समीर,
बस वियोग की उमस में
लथपथ रहती हूँ।

चाँदनी दिखती जरूर है,
पर एकान्त की बेवा नजर आती है।
सहसा तुमको याद करना,
अभिशाप हो जाता है.....
स्वप्न कायर की भांति
भागते नजर आते हैं.....
और मैं जलने लगती हूँ
शब्दों की मशाल से ......

क्यूँ कब और कैसे हुआ
अलगाव हमारा?
आज भी प्रश्न की खोज में हूँ,
और समय निरुत्तर खड़ा है,
मेरे समक्ष................
सुनो आ जाना उसी मोड पर
जहां एक मुलाक़ात अधूरी पड़ी है।
और हो सके तो समय के रिक्त स्थानो
को भी भर देना.........
सोनिया

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर अहसास ,सुन्दर अभिव्यक्ति!
    latest post मंत्री बनू मैं
    LATEST POSTअनुभूति : विविधा ३

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  2. बेहद खूबसूरत......

    सस्नेह
    अनु

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