मैं मर
रही हूँ धीरे-धीरे......
और तुम
निश्चिंत हो।
जैसे
तूफान आने से पहले
सागर
निश्चिंत होता है।
आतुर
आत्मा देह के भीतर
छटपटा
रही है, और तुम-
अपने
तरल विचारों को
मंथ रहे
हो……………
जैसे
सागर को मंथा गया था कभी ,
ना जाने
कब तुम्हारे विचार
गाढ़े
होंगे और कब उसमे से
प्रेमरूपी
अमृत निकलेगा........
जो मुझे
जीवन-दान देगा
सुनो!!
बरस ना लगाना,
अपने
विचारों को सही,
दिशा
में लाने मे.....
ना जाने
कब मेरी भावनाएं,
धरती
के गर्त में समा जाएँ,
जैसे
कई सभ्यताएं समा गई!!!!
हड़प्पा
जैसी--
हाँ!!!
मैं भी तो एक सभ्यता हूँ,
सामाजिक
सभ्यता---!
जो तुम्हारी
अनदेखी से,
धीरे-धीर
लुप्त हो रही है।
बचा लो
मेरे अस्तित्व को, और
संरक्षण
और संवर्धन कर लो मेरा,
मेरे
ख़त्म होने से पहले............
सुनो!!!
मैं मर रही हूँ
और तुम
निश्चिंत हो।
सोनिया
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति,आभार.
ReplyDelete"स्वस्थ जीवन पर-त्वचा की देखभाल"
Deleteदिल में बहुत गहरे तक उतर गयी आपकी रचना बधाई
ReplyDeleteबहुत वेग है आपकी रचना में. मन में बहुत दूर तक जाती है.
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