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Thursday, 14 March 2013

मैं कुछ नहीं........मैं बस तुम हूँ!!!!!

मैं कुछ नहीं, मात्र,
एक पिघला हुआ धुआँ हूँ
जो तुम्हारे इर्द-गिर्द फैला है,
एक आभामंडल कि भांति,
लाख प्रयासों से भी तुम
उड़ा नहीं सकते मुझे।
... मैं कुछ नहीं एक ‘याद’ भर हूँ
जो निहत्थी और निडर होकर
आती है तुम्हारे समीप,
एक हथियार कि तरह,
और तुम पराजित हो जाते हो
बिना मुझसे युद्ध किए।
मैं कुछ नहीं चंद ‘तारीख़’ हूँ
जो लटकी पड़ी हैं तुम्हारे,
जीवन कि दीवार पर।
कुछ तारीख़ें वह हैं
जिनके संग मिलकर मैंने और तुमने
मधुर पल बिताए.....
और कुछ तारीख़ें वह हैं 

 जिनमे हम कभी नहीं मिल पाये।
मैं कुछ नहीं एक ‘अनहोनी’ हूँ
जो बस घट गई तुम्हारे जीवन में!!!!
और छोड़ गई कुछ और होने का अंदेशा!!!
क्यूंकी ‘होनी को कौन टाल पाया है भला’।
मैं कुछ नहीं एक ‘सूखा घाव’ हूँ।
मुझे स्मरण करने के बहाने,
जिसे तुम प्रायः हरा कर लेते हो।
और भिड़ जाते हो दर्द से!!!
जिसका तुमको तनिक डर नहीं!!!!!
मैं कुछ नहीं........मैं बस तुम हूँ!!!!!
मैं मौजूद हूँ तुम्हारे अंतस में
मत ढूंडो मुझे इधर-उधर,
खुद में खोजो- मेरा अस्तित्व!!
जो तुम्हारे अंतस मे पसरा पड़ा है,
तुम जिधर,जाओगे मुझे ही पाओगे।
हाँ- इस खोज-बीन में तुम
खुद को नहीं देख पाओगे!!!
क्यूंकी तुम्हारा अस्तित्व
मेरे भीतर पसरा पड़ा होगा।
सोनिया

7 comments:

  1. नित्य निरंतरता नवता ....मानवता समता ममता ....सारथी साथ मनोरथ का ....जो अनिवार्य नहीं थमता .....
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .....

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  2. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (16-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  3. वाह बहुत खूब !


    आज की ब्लॉग बुलेटिन आम आदमी का अंतिम भोज - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. उम्दा भाव लिए बढ़िया रचना !

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