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Tuesday, 19 March 2013

मैं विरह “विदग्धा” हूँ................


विरह विदग्धा” हूँ मैं !!!
तुम्हारे लिए।
संशयान्वित न होना प्रेयस
भरोसा करो मेरा हृदय से।
आज विक्षुब्ध हूँ तुम्हारे,
विवेचन से की मैं,
समस्त वचन भूल गई।
सत्य कहा था मैंने कि,
तुम मर नहीं सकते.....
क्यूंकी तुम्हारा जीवन
मेरे पास संरक्षित है,
और मेरा तुम्हारे पास!!!
हम साहूकार बन चुके हैं,
ब्याज के तौर पर,
साँसो का आदान-प्रदान चल रहा है।
काल अवश्य लुब्धक बना बैठा है,

हमारे प्रेम को जाल में फँसाने के लिए।
ये कुछ नहीं बस मजबूरीयों कि व्यथा थी,
जो भोर मे सर्द साँसे ले रही थी।
जिसने तुम्हारे तन को सिहरा दिया।
हाँ--ये सामाजिक रीतियाँ दाहस्थल बन जाती हैं।
कभी-कभी,
और तुम सोचते होगे कि मैंने,
समस्त वचन चिता मे जला दिये।
उफ़्फ़! तुम्हारी सोच की  पैंठ,
कितनी विस्तृत हो चुकी है।
यकीनन इस से मेरे दुख
का जवालामुखी फूट पड़ता है।
और उसका लावा फ़ैल जाता है,
ये लावा कुछ नहीं मेरा,
मेरा भटकता हुआ दर्द है....
जो अचानक खौल पड़ता है,
सुनो!!! जिंदा हूँ मैं अभी तक
क्यूंकी मेरे प्राण संरक्षित हैं तुम्हारे पास
और तुम्हारे मेरे पास...........
मैं विरह  विदग्धा”  हूँ................
मात्र तुम्हारे लिए।
सोनिया 

5 comments:

  1. आपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 20/03/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!

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  2. पीडामयी भावों से लबरेज़

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  3. बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति,आभार.

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  4. भावपूर्ण रचना..

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  5. पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ. अच्छी लगी लेखनी. प्रेम की सुन्दर अभिव्यक्ति है.

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