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Thursday, 22 November 2012

जीवन को मैं फुसला रही!!!


तुम्हारी  स्मृतियाँ  निशा के संग  दबे  पाँव आ रही
ना जाने क्यूँ हृदय पीड़ा? अभ्र बन,नैनो मे मेरा छा रही।
 
सो गए इस गहन तम मे,जग के सभी सहयात्री
मेरी व्यथाएं ना जाने क्यूँ?फूट-फूट रोये जा रही।
 
दूर मध्यम सी ध्वनि मे निम्नगा है गीत गाती
कोमल हृदय मे आपदाएँ,पग पसारे बीज दुख के बोये जा रही।
 
गत रैन भी-  मैं तारों की गणना करती रही
इस रैन   मे भी   नखत   गिनती जा रही।
 
पाणि का संजोग ना था,प्रेम फिर भी कर लिया
प्राण रथ की ताक मे, जीवन को मैं फुसला रही!
 
आनंद की मुझे थाह दे ईश्वर भी देखो सो गया,
निष्ठुर विभु की नींद को अपलक मैं देखे जा रही।
 
निःस्तब्ध तम मे श्वास वीणा सुर तुम्हारे छेड़ती,
इस भरे जग मे, भावों की मेरी बोली लगाई जा रही।
 
ना जाने किस देश मे तुम मुझे हो सोचते
और यहाँ मेरे देश मे मैं पथ निहारे जा रही।
 

5 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना।

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  2. बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........

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  3. बेहद उम्दा खयाल, गहरी रचना,
    अरुन शर्मा - www.arunsblog.in

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  4. भावपूर्ण अभिव्यक्ति...

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  5. दिल को छू लिया। शब्दों का उत्तम चुनाव, तिस पर बिरहा का करुण भाव।

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