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Sunday, 17 February 2013

ख़्याल मफ़लूज हुए होंगे!

हर बरस की तरह,
इस बरस भी.....
उस आतुर, व्याकुल पथ के मोड पर
मेरी राह निहारते रह गए होगे होगे तुम!
और मैं आ पाई,
न सुन पाई तुम्हारी श्वासों का मध्यम स्वर 
ख़्याल मफ़लूज हुए होंगे!
न जाने क्या-क्या सोचकर।
वो सदाबहार सेमल भी ठिठका होगा!
जब तुम्हारी इन दो बोलती आँखों से,
इंतज़ार का खौलता अश्रु टपका होगा।
यकीनन कागज़ी बौगैनविलिया
भी पीर मे डूबे होंगे।
तो ख़मोश दोपहर
भी कुछ चिंतित हुई होगी
जो तुमने परवाह करते हुए,
मेरे इंतज़ार मे गुजरी होगी।
संभवतः एक अकेली ‘बबलर’ के गीत से,
तुम्हारी वियोग से भरी…..
रीती ज़िंदगी और भारी हुई होगी।
गौधूलि तक भी ना मैं आ पाई।





मेरी मजबूरीयों ने तोड़े होंगे,
सतरंगी स्वप्न तुम्हारे।
निशा के आने तक भी ना
लाँघ पाई मैं लक्ष्मण रेखा!
पथराए नैनो मे,
सावन की बूंदे लिए लौट रहे होगे।
उस ‘वरदान रूपी’ चौराहे से....
जिस ओर मिले थे कभी हम।
आज भले मिल ना पाये हों हम।
किन्तु अगले बरस, इसी दिन
मैं तुमसे जरूर मिलने आऊँगी....
यकीनन तुम दशरथ समान
अपने मिलने का वचन निभाओगे,
और समय के बिछौने मे जो कांटे पड़े हैं,
उनको पराग मे बदल जाओगे।

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना....

    अनु

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  2. सब कुछ समझ कर भी नासमझ बनता रहा
    सच को झूठ झूठ को सच कहता रहा
    बहुत खूब उत्कर्ष रचना
    मेरी नई रचना
    फरियाद
    एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
    दिनेश पारीक

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  3. बहुत ही सुन्दर सार्थक कविता.

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  4. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि कि चर्चा कल मंगल वार 19/2/13 को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका हार्दिक स्वागत है

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