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Thursday, 12 March 2015

हम-तुम

कल-कल निनाद करती सदानीरा
और अक्षितिज फैले
ईख के अंतहीन खेत
और वहीँ बैठे "हम-तुम"
प्रेम मिठास
की सीमा तय करते हुए।

मद्धम आंच में पकता हुआ सूरज
और शीत की मृत्यु पे
इठलाती पीली पीली तितलियाँ
और उस पर
टेहकी भेली सा तुम्हारा प्यार
और मेरी पारंपरिक स्नेहिल झिझक!

अचानक  मैं बन गई सदानीरा
और तुम सूरज
जो अनंतकाल से खुद को फूंक रहा है।
पर अब तुम मेरे किनारों
में लगा रहे हो डुबकी!

अब तुम्हारा ज्वर थोडा शांत है
देखा ना- तय हो गई
तुम्हारे-मेरे प्रेम की सीमा
जो शाश्वत है। :)
सोनिया  गौड़

1 comment:

  1. स्त्री-पुरुष का भेद कभी ख़त्म नहीं होने वाला ....सदियों पुरानी सोच पैठ बन जो बैठी हैं ..
    बहुत बढ़िया मंथन ..

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