आज-कल पहाड़ मे अपने गाँव आई हुई हूँ, जहां एक ओर हरी-हरी
वसुंधरा और घने-घने तरुवर की छाव है, वही कुछ कष्टों का अनुभव भी किया है, कल हमारे घर एक
व्रध महिला आई... बच्चों से सम्पन्न लेकिन अपनी माँ-पिता जी को अपने साथ ले जाने के
लिए बच्चे तनिक तैयार नहीं है... उनके दिल का मर्म मेरी कविता मे उतर आया है-विषय प्रासंगिक
कृपया सभी नव-पीड़ी ध्यान दें। और इस मर्म को और गहरा ना बनाए, क्योंकि अतीत भविष्य
के रूप मे पुनः लौट कर आता है, जलती लकड़ी कितना भी जल जाये आगे की ओर ही आती है नाकी पीछे की
ओर----
जिनका मैंने किया सृजन
मैं चिंतन से लथपथ
वेदनाओं से ओतप्रोत
जिनका मैंने किया सृजन
वे जाने कहाँ हुए लोप?॥
चेहरे के वलय
अब हुए घने
दुर्दिन मे, मेरे अपने,
एकांत मे गए मुझे छोड़॥
वस्त्र मेरे चिथड़े-जर्जर(नश्वर शरीर हेतु)
पैबंद की अब आस नहीं
नए वस्त्र की चाह मे
ईक्षा से जाऊँ,देह त्याग॥
चिंतन इस बात का है मुझको
जिस पीड़ा से मैं भरी हुई
एकांत की उस छाया का
अपनों तक ना फैले प्रकोप॥
कष्टो से लदा मेरा वर्तमान,
कल को अतीत हो जाये जब
मेरे दिल के टुकड़ों पर,
बरपाए ना वो तनिक क्रोध॥
मैं चिंतन से लथपथ
वेदनाओं से ओतप्रोत
जिनका मैंने किया सृजन
वे जाने कहाँ हुए लोप?॥ सोनिया बहुखंडी गौड़